ललद्यद के वाख कविता की व्याख्या | Vaakh Poem Complete Explanation | Class-9
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ललद्यद के वाख कविता की व्याख्या | Vaakh Poem Complete Explanation | Class-9
आज हम आप लोगों को क्षितिज भाग 1 कक्षा-9 पाठ-10 (NCERT Solution for class 9 kshitij bhag-1 Chapter-10) वाख (Vaakh) कविता के व्याख्या के बारे में बताने जा रहे है जो कि ललद्यद (Laldyad) द्वारा लिखित है।
1
रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव ।
जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार।
पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे।
जी में उठती रह-रह हूक, घर जाने की चाह है घेरे।।
शब्दार्थ–नाव-शरीर रूपी नाव । देव-प्रभु, ईश्वर। भवसागर-संसार रूपी सागर । कच्चे सकोरे-मिट्टी का बना छोटा पात्र जिसे पकाया नहीं गया है। हूक-तड़प, वेदना। चाह-चाहत, इच्छा।
भावार्थ : कवयित्री कहती है कि वह अपने साँसों की कच्ची रस्सी की सहायता से इस शरीर-रूपी नाव को खींच रही है। पता नहीं ईश्वर मेरी पुकार सुनकर मुझे भवसागर से कब पार करेंगे। जिस प्रकार कच्ची मिट्टी से बने पात्र से पानी टपक-टपककर कम होता रहता है, उसी तरह समय बीतता जा रहा है और प्रभु को पाने के मेरे प्रयास व्यर्थ सिद्ध हो रहे हैं। कवयित्री के मन में बार-बार एक ही पीड़ा उठती है कि कब यह नश्वर संसार छोड़कर प्रभु के पास पहुँच जाए और सांसारिक कष्टों से मुक्ति पा सके।
2
खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी।
सम खा तभी होगा समभावी,
खुलेगी साँकल बंद द्वार की।
शब्दार्थ–अहंकारी-अभिमानी, घमंडी। सम-इंद्रियों का शमन। समभावी-समानता की भावना। साँकल-जंजीर।
भावार्थ-कवयित्री मनुष्य को मध्यम मार्ग को अपनाने की सीख देती हुई कहती है कि हे मनुष्य! तुम इन सांसार की भोग विलासिताओं में डूबे रहते हो, इससे तुम्हें कुछ प्राप्त होने वाला नहीं है। तुम इस भोग के खिलाफ यदि त्याग, तपस्या का जीवन अपनाओगे तो मन में अहंकार ही बढ़ेगा। तुम इनके बीच का मध्यम मार्ग अपनाओ। भोग-त्याग, सुख-दुख के मध्य का मार्ग अपनाने से ही प्रभु-प्राप्ति का बंद द्वार खुलेगा और प्रभु से मिलन होगा।
3
आई सीधी राह से, गई न सीधी राह।
सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह!
जेब टटोली, कौड़ी न पाई।
माझी को दूँ, क्या उतराई?
शब्दार्थ–राह-रास्ता। सुषुम-सुषुम्ना नामक नाड़ी। टटोली-खोजा। कौड़ी न पाई-कुछ भी न मिला। माँझी-नाविक (प्रभु)। उतराई-पार उतारने का किराया।
भावार्थ-कवयित्री कहती है कि प्रभु की प्राप्ति के लिए वह संसार में सीधे रास्ते से आई थी किंतु यहाँ आकर मोहमाया आदि सांसारिक उलझनों में फंसकर अपना रास्ता भूल गई। वह जीवन भर सुषुम्ना नाड़ी के सहारे कुंडलिनी जागरण में लगी रही और इसी में जीवन बीत गया। जीवन के अंतिम समय में जब उसने जेब में खोजा तो कुछ भी हासिल न हुआ। अब उसे चिंता सता रही है कि भवसागर से पार उतारने वाले प्रभु रूपी माँझी को उतराई (किराया) के रूप में क्या देगी। अर्थात् वह जीवन में कुछ न हासिल कर सकी।
4
थल-थल में बसता है शिव ही,
भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां।
ज्ञानी है तो स्वयं को जान,
वही है साहिब से पहचान।
शब्दार्थ–बल-जमीन, स्थान। शिव-प्रभु। साहिब-ईश्वर।
भावार्थ-ईश्वर की सर्वत्र (सभी जगह) उपस्थिति के बारे में बताती हुई कवयित्री कहती है कि वह हर स्थान पर व्याप्त है। हे मनुष्य! तू धार्मिक आधार पर हिंदू-मुसलमान का भेदभाव त्यागकर उसे अपना ले। ईश्वर को जानने से पहले तू खुद को पहचान, अपना आत्म-ज्ञान कर, इससे प्रभु से पहचान आसान हो जाएगी। अर्थात् ईश्वर ही तो आत्मा रूप में हम सभी में निवास करता है।
इस पोस्ट के माध्यम से हम क्षितिज भाग 1 कक्षा-9 पाठ-10 (NCERT Solution for class 9 kshitij bhag-1 Chapter-10) वाख (Vaakh) कविता के व्याख्या के बारे में जाने, जो कि ललद्यद (Laldyad) जी द्वारा लिखित हैं । उम्मीद करती हूँ कि आपको हमारा यह पोस्ट पसंद आया होगा। पोस्ट अच्छा लगा तो इसे अपने दोस्तों के साथ शेयर करना न भूले। किसी भी तरह का प्रश्न हो तो आप हमसे कमेन्ट बॉक्स में पूछ सकतें हैं। साथ ही हमारे Blogs को Follow करे जिससे आपको हमारे हर नए पोस्ट कि Notification मिलते रहे।
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